Friday, June 19, 2009

साथ के मुसाफिर

चले तो थे साथ बहुत दूर तक
पर अब और दूर जा ना सकेगे
शायद इतना ही होना था सफर साथ में
जो मंजिल की झलक भी पा ना सकेगे|

ओ साथ के मुसाफिर यु ही भूल ना जाना
इन गलियों को जिन पर तू चला था
माना तीन दिन में भूलना तेरी आदत है
पर अपने निशाँ इन रहो पर जरूर छोड़ जाना|

बेखबरी और आवारगी के आलम में
जब भी फ़िर गुजरूँगा उनही गलियों से
देख वक्त के साथ शीण होते उन निशानों को
शायद याद कर लूँगा साथ कटे उस सफर को|


- गजेंद्र "स्थिरप्रग्य" सिडाना