Friday, November 07, 2008

जो भी यादें है समेट लूँ उनको....

घूमती सिमटती उन तंग गलियों में
झांकते उन बेबस दरीचो से
बेफिक्र यु जाते देखा था तुमको
आवाज तो दी थी रोकने के लिए
ताकि जी भर देख सकूं तुमको|

साँस फूली थी तुम्हारी आँखे थी थकी
पर तुम्हे तो दुनिया की हर चीज़ को पाना था
और बिना रुके बहुत दूर जाना था
लंबे डग भर चलते गए तुम
अनसुनी करके मेरी आवाज बढ़ते गए तुम|

निशब्द हैरान खडा मैं उस दरीचे पर
उस तंग गली के अन्तिम छोर को निहारता रहा
और टूटे दिल से नाम तुम्हारा पुकारता रहा
चाह बस इतनी थी की चंद लम्हे भर और देख लूँ तुमको
और जो भी बची है यादें समेट लूँ उनको|

- गजेंद्र "स्थिरप्रग्य" सिडाना