Saturday, July 18, 2009

मेरी गाड़ी छुटी जा रही थी

दूर से देख रहा था उसे
पर वो और भी दूर जा रही थी
मानो सीटी बजा बजा कर मुझे चिड़ा रही थी
कोशिश तो की बहुत मैंने उस तक पहुँचने की
पर फिर भी मेरी ट्रेन छुटी जा रही थी|

नहीं मिलेगी वो किसी अगले प्लेटफोर्म पर
यह तो मुसाफिर के दिल ने भी जाना है
पर एक मजबूर मुसाफिर को तो बस चलते जाना है
चाहे गाड़ी छुटने की टीस रह जायेगी हमेशा के लिए
पर अगली ट्रेन पकड़ अपनी मंजिल तक पहुँच जाना है|

गाड़ी को कहा होती है परवाह अधर में अटके मुसाफिर की
उसे भी तो बस बिन रुके चलते जाना होता है
मुसाफिर के लिए छूटती गाड़ी की बैचैनी को भुलाना नहीं आसान होता है
पर गाड़ी को कहा चिंता है उस मुसाफिर की बेचैनी क़ी
उसे तो बस अपने चुनिंदा मुसाफिरो के साथ चलते जाना होता है|

किसी रोज एक दिन जब एक ऐसा स्टेशन आएगा
सब मुसाफिर छोड़ गाड़ी को बढ़ जाएगे अपनी मंज़िल की और
और जब गाड़ी लौटेगी अकेले अपने गंतव्य की और
शायद सोचेगी वो भी उस बिछड़े मुसाफिर के बारे मे
जो शायद चलता उसके साथ अंतिम पड़ाव की और|

- गजेंद्र "स्थिरप्रग्य" सिडाना