Tuesday, February 13, 2007

Ek Din...........

दूर कहीँ उन-मने झरोखों से,
कहीँ थके अर्ध-सुप्त दराख्तो से,
टकराती चिल्काती उस अध्-जली धुप में ,
बैठा देख रह था उस सूनी पगडण्डी को,
जो बात झो रही थी किसी पथिक के आने को,
मानो गीली आंखो से तनहाई कि जलन बहुजन चाहती हो,
और पक्षियों के कलरव मैं अपने प्रियतम को पाना चाहती हो.

उसी दिन मैंने उस नीरस तीर को भी देखा था,
जो अपने प्रियतम को पाना चाहता था,
पर मानो नदिया कि पद्तादना से बबुस,
दूस्रेय तीर को बस्स निहारेय जा रह था,
और व्याकुल हो अह्स्रू नदिया मैं बहाए जा रह था,
संतोष बस्स इतना ही है उसको,
उसका प्रियतम भी कभी चुमेगा उसकी अश्रु कि बूंदों को.

उसी दिन मैंने हवा से कहते सुना था,
किसी बागन मैं एक गुलशन खिला था,
हवा से बातें करते करते उसने यह कहा है,
बहार के इस समां मैं वो कबसे भवरें कि राह देख रह है,
पर मस्त मलंग भावारे कि कौन खबर लाए,
और इस लाचार गुलशन के दिल को बहलाये.

मैं लाचार हैरान उनको देख रह हूँ
चाहता हूँ मदद करना पर खुद को भी बबुस पता हूँ,
और फिर उससी उदास पगडण्डी के बगल से बिना उससे चेदे
उस तीर के साथ साथ हवा से अपनी बबुसी जताता हुआ
तनहा घर लॉट जाता हूँ.