Tuesday, June 21, 2011

स्वपन

बचैनी में मचलती उस तन्हाई में
एक पीर जगती है ऐसे
शांत समंदर के पानी में
एक विकराल लहर उठी हो जैसे|

टूटेगा
यह तट भी विरह की लहरों से
सुना तो था कभी ऐसे
पर चन्द उन्मादित लहरों के अजमाने से
भला यह तट अपना सिरा छोड़ेगा कैसे|

ऊंघती सिमटती उन अंगङाईयो में
एक टीस मचती है ऐसे
कबसे बेबसी का पिंजरा तोड़
पंख फ़ैलाने को आतुर हो एक पंछी जैसे|

बाते है जरूर कुछ ऐसी जहन में
जो बस भूलती नहीं ऐसे
कब से सोया एक डरावना स्वपन
नींद से जगाने को उन्मुख हो जैसे|

-गजेन्द्र "स्थिरप्रग्य" सिडाना