Sunday, March 22, 2009

ख्वाब जो ख्वाब में भी ना आया

किसी रोज़ खवाब में एक हसीं महफ़िल सजाई थी
आयेगे वोह एक दिन इस महफ़िल में ज़रुर
बस ये ही सोच कर ना जाने कब तक पलकें राह में बिछाई थी

चांदनी को भी बुलाया था सामियाने और रजाई भी मंगवाई थी
खूब बंधेगा समा जब आयेगे वोह
बस यही सोच कर जाम की प्यालिया भी भरवाई थी

किया इंतेज़ार बहुत पर उन्होंने ना आने की कसम खाई थी
बहुतो आए और जाम के प्याले खाली करचले गये
पर राह त्कते हुमने एक बूद ना होट्टो पर लगाई थी

इंतेज़ार करते करते पता ना चला कब रात ख़तम होने आई थी
व्यर्थ था ये इंतेज़ार यही सोच कर चल दिया घर की और
घर पहुँचता उससे पहले ख्वाब मेरा टूटा क्योंकि भोर होने को आई थी


- गजेंद्र "स्थिरप्रग्य" सिडाना