Thursday, March 26, 2009

शायद इस रात कि सुबह नहीं।

दूर तक फैला है अँधेरा
रौशनी क्यों नजर आती नहीं
क्या मीलो लंबी है यह सुरंग
जो तारों कि भी झिलमिल नजर आती नहीं
कहते है रात के बाद दिन आता है
पर शायद इस रात कि सुबह नहीं।

व्यर्थ ही चला जा रह हूँ मैं
कहा है जाना पता नहीं
थका हारा हूँ मैं कब से
कोई आश्रय क्यों नजर आता नहीं
कहते है रात के बाद दिन आता है
पर शायद इस रात कि सुबह नहीं।

थकी है जगी है आंखें बहुत देर से
पर नींद फिर क्यों आती नहीं
गुजर गया है तूफ़ान
पर करार दिल को क्यों आता नहीं
कहते है रात के बाद दिन आता है
पर शायद इस रात कि सुबह नहीं।

कहते है जिन्दगी में सब कुछ है
पर बात इसमे क्यों नजर आती नहीं
ऐसा लगता है जीवन बेवफा है
तो मौत फिर क्यों गले लगाती नहीं
कहते है रात के बाद दिन आता है
पर शायद इस रात कि सुबह नहीं।